‘मृदोर्भावः मार्दवम्’ मृदुता का भाव रखना मार्दव है। मन, वचन, और काय से मृदु होना मार्दव अथावा मृदुता है। यदि मृदुता में त्रियोग में से किसी एक योग की भी वक्रता है तो वह मार्दव मायाचार है। मयूर पक्षी मधुर वाणी (केका) बोलता है, किंतु मधुर स्वर सुनकर बिल से निकल हुए सर्प को खा जाता हे। यह मार्दव कोमल परिणामशी न होने से मार्दव नहीं, मार्द का मायाचार है। किसी समय संगीत से वनमृगों को बुलाया जाता था और जब वे राग सुनने में तल्लीन हो जाते थे उन्हें बाण मार दिये जाते थे। सर्प पकडने के लिए सपेरे आज भी पुगी बजाते हैं। इसलिए परिणामों की कोमलता ही मार्दव है। परिणामों की कोमलता के लिए मान को त्याग देना चाहिए। जिस प्रकार बीज बोने के लिए जमीन पर हल, चलाकर उसे अच्छी तरह जोतकर तथा कूड़ा-करकट से रहित कर साफ किया जाता है उसी प्रकार धर्म रूपी बीज का वपन करने के लिए सबसे पहले क्षमा द्वारा जिस मन रूपी भूमि का कर्षण किया था उसी को मार्दव के द्वारा निर्मलकिया। इस निर्मलता के द्वारा उत्तम चरित्र रूपी फल की उपलब्धि सुनिश्चित है।
मनुष्य में अभिमान का बीज होना ही उनके पतन का द्योतक है। अभिमानी मनुष्य मृदु नहीं होता, अपितु पत्थर की तरह कठोर होता है, उसके अंदर दूसरे के लिए प्रति सहानुभूति नहीं होती है मानवता उससे कोसों दूर भागती है। अतः मनुष्य जीवन विनम्रता से ही सफल होता है। संसार में करोडो भवों में हीन, मध्य और उत्तम कुलों में जन्म लिया। किसी भीप्राणी की उत्पत्ति केवल एक ही जाति में होती हो ऐसा नियम नहीं है, अपितु कर्म के वश ही प्रणी भ्रमण करता रहता है, किसी की भी कोई शाश्वत जाति नहीं है। अच्छे कल में उत्पन्न व्यक्ति भी रूप, बल, श्रुति मति, शील तथा वैभव से रहित देखे जाते हैं। अतः कुल के प्रति मान का परित्याग करना चाहिए। जिसका शील (चरित्र) अशुद्ध है, उसे कुल का मद करने से क्या लाभ है? इसी प्रकार जो स्वकीय गुणों से अलंकृत है उसी शीलवान को भी कुलमद से किंचित प्रयोजन नहीं है।
जो शुक्र और शोणित से उत्पन्न हुआ है, जिसमें सतत हानि, वृद्धि होती रहती है, जो रोग और जरा का आश्रय है, जिसे प्रति दिन साफ करना पड़ता है, जो चमडा और मांस से आच्छादित है, कलुषतापूर्ण है तथा निश्चित रूप से विनाश स्वभाव वाला है ऐसे शरीर के रूप में मद का क्या कारण हो सकता है? अर्थात कोई कारण नहीं हो सकता। जो व्यक्ति आज बलवान है, वही क्षण भर में बलहीनता को प्राप्त हो जाता है तथा जो बलहीन है, वही संस्कार के वश पुनः बलवान हो जाता है, इस प्रकार बुद्धि के बलि से बल का अनियतपना जानकर तथा मृत्युबल के सामने अपनी अबलता जानकर अपने बल का भी मद नहीं करना चाहिए। लाभ और अलाभ क्षणिक है, ये कर्म के उदय और उपशम के निमित्त से होते है; ऐसाजानकर न तो अलाभ में दुखी होना चाहिए और न लाभ होने पर विस्मय करना चाहिए। ग्रहण, उदग्रहण (दूसरों को समझाना), नवीन रचना करना, निवारण तथा अर्थ का अवधारण करना इत्यादि बुद्धि के अंगो का आगम में जो विधान है, उसके अनन्पर्यायों की वृद्धि की अनन्ता को सुनकर आजकल के पुरूष अपनी बुद्धि का गर्व कैसे करते है? अर्थात पहले के लोगों के ज्ञान को ध्यान में रखकर हमें अपने तुच्छ ज्ञान का गर्व नहीं करना चाहिए।