क्षमा आत्मा का स्वभाव है। क्षमा पृथ्वी का नाम हे। जिस प्रकार पृथ्वी तरह-तरह के बोझ को सहन करती है, इसी प्रकार चाहे कैसी भी विषम परिस्थिति आए, उसमें भी अपने मन को स्थिर रखना, अपने आपको क्रोध रूप परिणत न करना क्षमा है। क्रोध आत्मा का शत्रु है, इसके वशीभूत हुआ प्राणी अपने आपको भी भूल जाता है। इससे उसके सभी प्रयोजन नष्ट हो जाते है। कहा भी है-
अर्थात् यदि अपराधी व्यक्ति पर क्रोध पर ही क्यों नहीं क्रोधित होते हैं जो कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, सभी का विरोधी है। क्षमावान् जीव यह भावना रखते हैं कि यह स्वेच्छाचारी लोक अपने हृदय में मुझे भला अथवा बुरा भी माने, किंतु मैं तो रागादि दोषों को छोड़कर अपने उज्जवल ज्ञान में ही स्थित रहूंगा। उत्तम क्षमा के धारक पुरूष को मात्र अपने आत्मा की शुद्धि ही साध्य है। इस जगत में अन्य मेरा बैरी हो अथवा मित्र हो, इससे मुझे क्या? अर्थात शत्रु या मित्र मेरा कुछ भी नहीं कर सकते। जो जैसा परिणाम करेगा, उसे उसका वैसा ही फल प्राप्त होगा। मेरे दोषों को प्रकट करके संसार में दुर्जन सुखी हों, धन के लोभी मेरा सर्वस्व ग्रहण करके सुखी हो जायं, शत्रु मेरा जीवन लेकर सुखी हों और जिसे जो स्थान लेना है वह स्थान लेकर सुखपूर्वक रहे, किंतु किसी भी जीव को मुझसे दुःख न पहुंचे, मैं ऐसी पुकार सबके समक्ष करता हूं।
अपराधिनि चेत्क्रोधः किं न कोपाय कुप्यसि।
धर्मार्थ कामोक्षाणां चतुर्णां परिपन्थिनिं।।